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नफरतों के इस दौर मे

हर तरफ सवाल हैं लेकिन जवाब कुछ सूझ नहीं रहा और जिन्हें जवाब देने की जिम्मेदारियां मिली हैं उनकी ख़ामोशी समझ में नहीं आती. ये हकीक़त है आज के दौर के हिन्दुस्तान की, जहां इस देश का आम नागरिक हर तरह की राजनीतिक उठापटक से दूर अपने रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी चलाने और दो जून की रोटी जुटाने में सब कुछ फरामोश किये बैठा है और देश के नौजवान सोशल मीडिया के सहारे साजिशों के चंगुल में फंस के नफरतों को बढ़ावा देने में जोर शोर से लगे बैठे हैं. गायक और कलाकार फनकारी के अलावा नफरतों का कारोबार भी करने लगे हैं, जबसे अज़ान और गुरुवाणी उन्हें शोर लगने लगे हैं. खुल के बोलनेवाली महिलाएं उन्हें बेशरम लगती हैं, उनपे देह व्यापार में लिप्त होने का इलज़ाम लगा कर अपनी मर्दानगी और पुख्ता   करते हैं. यहाँ रोज़ किसी अहमद या किसी राफिया से उसके देशभक्त होने का सुबूत माँगा जाता है, और किसी दलित से आरक्षण छोड़ देने की मांग की जाती है. समझ में तो ये नहीं आता कि   किसी भी धर्म को अपनाने या बहुसंख्यक धर्म को अस्वीकार करने से लोगों की देशभक्ति क्यों कटघरे में आ खड़ी होती है? हिन्दुस्तान में रहने वाले मुस्लिम बाशिंदे भले इस्लाम धर्