नफरतों के इस दौर मे




हर तरफ सवाल हैं लेकिन जवाब कुछ सूझ नहीं रहा और जिन्हें जवाब देने की जिम्मेदारियां मिली हैं उनकी ख़ामोशी समझ में नहीं आती. ये हकीक़त है आज के दौर के हिन्दुस्तान की, जहां इस देश का आम नागरिक हर तरह की राजनीतिक उठापटक से दूर अपने रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी चलाने और दो जून की रोटी जुटाने में सब कुछ फरामोश किये बैठा है और देश के नौजवान सोशल मीडिया के सहारे साजिशों के चंगुल में फंस के नफरतों को बढ़ावा देने में जोर शोर से लगे बैठे हैं. गायक और कलाकार फनकारी के अलावा नफरतों का कारोबार भी करने लगे हैं, जबसे अज़ान और गुरुवाणी उन्हें शोर लगने लगे हैं. खुल के बोलनेवाली महिलाएं उन्हें बेशरम लगती हैं, उनपे देह व्यापार में लिप्त होने का इलज़ाम लगा कर अपनी मर्दानगी और पुख्ता  करते हैं. यहाँ रोज़ किसी अहमद या किसी राफिया से उसके देशभक्त होने का सुबूत माँगा जाता है, और किसी दलित से आरक्षण छोड़ देने की मांग की जाती है. समझ में तो ये नहीं आता कि  किसी भी धर्म को अपनाने या बहुसंख्यक धर्म को अस्वीकार करने से लोगों की देशभक्ति क्यों कटघरे में आ खड़ी होती है? हिन्दुस्तान में रहने वाले मुस्लिम बाशिंदे भले इस्लाम धर्म को माने पर उनकी जड़ें तो भारतीय ही हैं? समय के किसी घटनाक्रम के कारण अगर उनके पुरखों ने इस्लाम को स्वीकार कर लिया तो इसका मतलब ये तो नहीं की वो विदेशी हो गए? और अगर खुदा न करे उन्होंने कोई ऐसी बात कह दी जो राष्ट्रीयता का दम भरने वालों को पसंद ना आए तो उन्हें मुल्क छोड़ने की हिदायत देने से भी नहीं चूकते. सवाल तो यही है कि कोई कैसे तय करेगा की कौन देशभक्त है, कौन देशद्रोही, कौन अपना है, कौन विदेशी?    

         क्रिकेट के मैदान से देश की सरहदों तक तैनात दोनों तरफ के लोग एक दुसरे को दुश्मन-ऐ-जानाँ की नज़रों से देखते हैं और इनके पैरोकार एक दुसरे को देख लेने की धमकी देते हैं. खेल में हुई हार जीत को देशभक्ति और राष्ट्रवाद से जोड़ के देखा जाता है, खेल मनोरंजन और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा ना होकर के देशभक्ति नापने का पैमाना भर रह गया है. हारने के बाद अपने ही चहीते खिलाड़ियों को अभद्र भाषा के अलंकारों से नवाजने में नहीं हिचकते और जीतने पर दुश्मन देश की इज्ज़त को स्त्री अपमान सूचक शब्दों से रौंदने पे ज़बान नहीं लड़खड़ाती. जो दुश्मन देश को जितनी भद्दी गाली दे वो उतना बड़ा देशभक्त और जो अमन चैन की बात करे वो देशद्रोही.

पत्थरबाजों से निपटने का तरीका हमने यूँ खोज निकाला जब आंसू गैस के गोलों से काम नहीं बना तो पेलेट गन्स का इस्तेमाल किया, होने लगी जब विदेशों और यू एन में चर्चा तो मिर्ची बम को याद किया. कश्मीर की ज़मीन तो दिखाई देती है पर वहाँ रहने वाले कश्मीरियों का दर्द नहीं दिखता. और उन कश्मीरियों का भी क्या कहना जो जम्हूरियत से दूर आतंकवाद के सहारे “आज़ादी” और “इन्साफ” पाना चाहते हैं जबकि इन्हें भटकाने और बढ़ावा देने वाले अलगाववादी संगठन अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं. इन अलगाववादियों की कोशिश शायद रंग ला रही है या वाकई कश्मीर में हालत इतने ख़राब हैं की जम्हूरियत में अब लोगों का यकीन नहीं? इन सवालों का जवाब ढूँढना बेहद ज़रूरी है क्यूंकि अप्रैल में होने वाले उपचुनाव में हुई सात फीसदी वोटिंग, 200 छिटपुट हिंसा की घटनाएं, 8 लोगों की मौत और 100 जवानों के ज़ख़्मी होने के नतीजे काफी डराने वाले हैं. पर साल दर साल सिविल परीक्षाओं में सफल होने वाले कश्मीरियों की तादाद में होने वाले इज़ाफे कुछ और ही कहानी बयान कर रहे हैं, कि कश्मीर में अभी भी वो नौजवान हैं जो भारत को ही अपना वतन मानते हैं और उससे अलग नहीं होना चाहते, शायद अलगाववादियों का ये डर ही उन्हें ऐसे नौजवानों का क़त्ल करने पर मजबूर करता है. कैप्टेन उमर फ़य्याज़ और डीएसपी अयूब पंडित को अलगाववादी सिर्फ इसलिए मार देते हैं क्यूंकि वो कश्मीर के हो के भी तथाकथित “कश्मीर की आज़ादी” के लिए ना लड़ कर भारतीय सैन्य बल और पुलिस को अपनी सेवाएं दे रहें हैं.

   आज देश में जो माहौल है उसमे मुद्दे ये उछाले जा रहें हैं की पिछली सरकार कितनी निकम्मी थी? वर्तमानं सरकार क्यों नहीं कुछ कर रही है? जेएनयू राष्ट्रवादी क्यों नहीं? मुस्लिम चरमपंथ के विरोध में हिन्दू चरमपंथ कहाँ तक पंहुचा? बीफ बैन हो या ना हो, उत्तर में हो तो दक्षिण और पूर्व में क्यों ना हो? पर मेरे मन में उठने वाले सवाल कुछ और हैं, मुद्दे जो असल में होने चाहिए वो कुछ और है. सवाल ये कि क्यों हमारे अवचेतन मन में इतनी नकारात्मकता घर कर गई है? क्यों हम इक्कीसवीं सदी में रह कर भी प्रतिगामी विचारों को आगे बढ़ाना चाहते हैं? नित नए होने वाले आविष्कारों और उन्नत वैज्ञानिक तकनीकों में दक्ष होने के बावजूद क्यों हम अफवाहों पे इकठ्ठा होकर, संवैधानिक मूल्यों की खिलाफ जाकर किसी की हत्या कर देते हैं? मुद्दे जो होने चाहिए वो ये कि बहस का मुद्दा विकास का होना चाहिए. हमें अपनी सरकार से पारदर्शिता की उम्मीद करनी चाहिए, सवाल पूछने की आजादी होनी चाहिए और जवाबदेही तय करनी चाहिए, लोकतंत्र को बचाने की कवायद में सवाल पूछने के अधिकार पे पहरा नहीं लगाना चाहिए. मुद्दा हर किसी की सुरक्षा का होना चाहिए, अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने का होना चाहिए, नए आविष्कारों के पेटेंट का होना चाहिए, आम आदमी की आय बढ़ने का ज़रिया ढूँढना चाहिए. किसानों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति का कारण पता करके उन्हें दूर करने का होना चाहिए. अफ़सोस ऐसा कोई भी मुद्दा बड़ी बहस के लिए तैयार होता नज़र नहीं आ रहा. अब इसे सरकार की हीलाहवाली कहें या कोई विचारधारा जो केवल कश्मीर को ही नहीं देश के हर तबके को, हर हिस्से को हिदू-मुस्लिम, अमीर-गरीब, दलित-जनरल, देशद्रोही-देशप्रेमी, राष्ट्रवादी-अराष्ट्रवादी के खांचे में बाँट देना चाहती है, नफरतों को बढ़ावा देकर अपना कोई मकसद पूरा करना चाहती है.

आज ईद है और ईद के इस पुर मसर्रत मौके पर एक यही दुआ लफ़्ज़ों से आज़ाद होती है..

नफरतों के इस दौर में अम्न की लौ जलाई है

ऐ खुदा, इस शमा की हिफाज़त करना

(पोस्ट ईद के दिन लिखा था लेकिन सबसे सांझा आज कर रहीं हूँ इसलिए इसके मूल के साथ कोई  छेड़ छाड़ नहीं की )

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